Monday, February 25, 2008

मन की जीत

जब सोचता हूँ कई बार बैठा
संग अपनी तनहाई के
दिखता है इक धुँधला-सा चेहरा
दिल की अनन्त गहराई में ...
क्या यह तुम्हारा ही साया है
जो तनहाई को भी बेवफा बना जाता है
अकसर यही सवाल
मेरा मन मुझसे किया जाता है ...
नहीं -नहीं यह कैसे हो सकता है
यह तन्हाई तो तुम्हारी दी हुई नेमत है
तो कोई रोग ख़ुद उस रोग की
दवा कैसे बन सकता है ...
उर की धरा पर
कई बार तेरा ख़याल पनपा , थोड़ा बढ़ा
पर मनसिज ज्वार के थपेडों नें
हमेशा उसे घायल किया ...
कई बार तो मन को मारा है
मगर कब तक यह जुर्म करूँ
कब तक छीनूँ उसकी स्वतंत्रता
आखिर मन की भी तो अपनी परिधि है ...
और हाँ इस बार मैंने
मन की बाहें थामी , उसकी हामी भरी
अब मेरा मन खुश रहता है, गुमा करता है
क्यूं न हो, उसे उसका बिछड़ा साथी जो मिल गया है ..........

1 comment:

Alien Coders said...

kyun dubey ji lagta hai baat hui hai kahi pe kisi se.
ab dil aur dimag dono kahi chut gaya hai aapka.
achi kavita hai par ye kisi aur ki aur sanketik bhasa me likha gaya kavita malum parta hai.
lage rahiye dubey ji.