Saturday, February 16, 2008

विरह की वेदना

जब याद किया दिल ने उनको
सोचा न कभी इन बातों को
यादों की है क्या मर्यादा
हैं यादों की क्या सीमायें...
चाहूँ उनकी यादें आ कर
चूमें मन के अधरों को
संग उनके जिससे उड़ता था
वो पर मेरे आ जायें...
दूर चमन में उड़ जाने को
जब रहते थे आतुर संग मेरे
मादक अतीत के वो पलछिन
फ़िर पास मेरे आ जायें...
मीठे बोल संगम के दो
वो गाते थे जो संग मेरे
दिल चाहे उन प्रिय बोलों को
फ़िर संग मेरे वो गायें...
विरहा की आग के बारे में
औरों से सुनकर हँसते थे
ख़ुद आज अन्तर मेरा चाहे
वो दूर न मुझसे जायें ...............

2 comments:

ragini said...

पलछिन iski jagah per पदचिन्ह hona chahiye tha..............
aur rahi baat kavita ki to ye padhakar pata nahi chalta hai ki ye lekhani pahli baar chali hai........
bas lagta yahi hai ki mashke ki taraf talaffuz fisalte jaa rahe hain aur kavita banti gayee...........
vry good.........bambastic....fantastic..

praveer said...

superb brother....aapki kavitayo ke saukh ke bare me to ranchi me hi suna tha..aaj dekh bhi liya..
zabardast hai..just keep it up bro..