जीवन की एक चाह
क्यूँ न मैं कुछ करूँ**
गिरुं गिरकर सम्भलूं
डगमगाऊं फिर भी चलूँ
क्यूँ न मैं कुछ करूँ**
क्यूँ न मैं उन गावों मे जाऊँ
जहाँ आज भी बच्चे शिक्षा से दूर हैं
क्यूँ न दो टूक ज्ञान का उन्हें भी दूँ
क्यूँ न मैं कुछ करूँ**
क्यूँ न उन लोगों की भीड़ मे जाऊँ
जो आज किसी तरह खाया पर कल क्या खाना है
ये सोच सोच के हैराँ हैं
क्यूँ न उन्हें दो रोटियां खिलाऊँ
क्यूँ न मैं कुछ करूँ**
क्यूँ न उन नेताओं के पास जाऊँ
जो देश की बदहाली पे अट्टहास कर
अपना खजाना भरने की होड़ मे हैं
क्यूँ न उन्हें ज़मीनी सच्चाई से अवगत कराऊँ
क्यूँ न मैं कुछ करूँ**
क्यूँ न मैं भारत माँ की गोद मे जाऊँ
जो अपने ही पूतों के दुष्कर्म से लज्जित है
क्यूँ न उसके आंसू पोछूं
क्यूँ न मैं कुछ करूँ**
जीवन की एक चाह
क्यूँ न मैं कुछ करूँ ********
Tuesday, August 26, 2008
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